जैविक खेती, खाद की पूरी जानकारी ! Jaivik Kheti Kya Hoti Hai
जैविक खेती कैसे करें, वैज्ञानिक जैविक खेती विधि क्या है, जैविक खाद के तरीके/ निर्माण विधियां/ महत्व/ फायदे/लाभ, जैविक खाद बनाने का तरीका" सम्बंधित प्रश्नों का जवाब दिया जायेगा।
जैविक खेती किसे कहते हैं?
जैविक खेती प्रकृति के साथ सामंजस्यबना के चलती है ना की उसके विरुद्ध।इसके लिये ऐसी तकनीक का प्रयोग किया जाता है जो कि अच्छी फसल देने के साथ –साथप्रकृति और उसमें रहने वाले लोगों को कोई नुकसान न पहुँचाऐ ।
नीचे दी गई वीडियो को ध्यान से देखें क्योंकि ये महत्त्वपूर्ण टिप्स है |
वीडियो पूरा देखें (सब कुछ अंत तक देखें) Click Below Video-
वीडियो #2
वीडियो #2
गत वर्षों से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिद्धान्त पर खेती करने की सिफारिश की गई, जिससे प्रदेश के कृषि विभाग ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम जैविक खेती के नाम से जानते है। जैविक खेती में प्रयोग कि जाने वाली प्रक्रिया निम्नलिखित हैं :
मृदा कि संरचना और उरवर्कता को बनाए रखने तथा उसे बढाने के लिए:
- फसल के कचरे और पशु खाद का पुनर्नवीनीकरण करना ।
- खेतों कि सही समय पर जुताई करना ।
- फसल का चक्रिकरण ।
- हरी खाद और फलियां ।
- मिट्टी की सतह पर पलवार डालना ।
कीटों , रोगों और मातम नियंत्रित करने के लिए :
Ad- सही फसल का चुनाव ।
- प्रतिरोधी फसलों का उपयोग ।
- खेती के सही तकनीकों का प्रयोग ।
- फसल का चक्रिकरण ।
- कीट खाने वाले शिकारियों को बढ़ाना ।
- आनुवंशिक विविधता को बढ़ाना ।
- प्राकृतिक किटनाशकों का प्रयोंग ।
जैविक खेती मेंनिम्नलिखित चीजें भी शामिल हैं :
- जल का सही प्रयोग
- अच्छा पशु पालन
जैविक खेती से किसानों को होने वाले लाभ:
1. मिट्टी में होने वाले लाभ -
- जैविक खाद के उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है।
- भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती हैं।
- भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम हो जाता है।
- कृषकों को होने वाला लाभ -
- भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृध्दि हो जाती है।
- सिंचाई अंतराल में वृध्दि होती है ।
- रासायनिक खाद पर निर्भरता कम हो जाती है।
- फसलों की उत्पादकता में वृध्दि होती है।
3. पर्यावरण का लाभ -
- भूमि के जल स्तर में वृध्दि होजाती हैं।
- मिट्टी, खाद्य पदार्थ और जमीन में पानी के माध्यम से होने वाले प्रदूषणों मे भीकाफी कमी आ जाती है।
- कचरे का प्रयोग खाद बनाने में करने से बीमारियों में कमी आती है ।
- फसल उत्पादन की लागत में काफी कमी हो जाती है और आय में वृध्दि होती है।
खेती का आधुनिक दृष्टिकोण-
जैविक खेती का मतलब ये नहीं है कि हम केवल पारंपरिक तरीकें हीं अपनाऐं हालाँकी उनमें से कई आज के वक्त में भी काफीं ऊपयोंगी हैं । किन्तु यदी हम पारंपरिक तरीकों कोंआधुनिकतकनीकों के साथ प्रयोग में लाऐं तो जैविक खेती सही और अच्छे नतीज़े देती है ।
जैविक खेती में किसान अपने खेतों को प्रकृति पर छोड़ने के बजाए खुद ही आधुनिक तकनीकों को प्रयोग कर के प्रकृति और खेती के बीच स्वस्थ संतुलन बनाने का प्रयास करता है ।
एक कृषि को सफल जैविक कृषकबनने के लिये हर कीट और मातम को अपना शत्रु मानना छोंड़कर उन्हें नियंत्रित रखने तथा उन्हें लाभ में लाने के उपाय़ खोजने चाहिऐ ।
संयुक्त तकनीक
जैविक कृषि में केवल एक ही विधि का प्रयोग नहीं किया जाता है बल्कि इसमें अलग-अलग विधियों को मिला कर प्रयोग में लाया जाता है ताकी अधिक- अधिक लाभ मिल सके । जैसे – हरी खाद को खेती कि कुछ और सावधानियों के साथ प्रयोग करने से अधिक लाभ मिलता है जबकी इन्हें अकेले प्रयोग करने से उतना अधिक लाभ नहीं मिलता हैं ।
जैविक खेती क्यों उपयोगी है:
जैविक खेती न केवल मनुष्यों बल्किप्रकृति को भी लम्बें अन्तराल में काफी लाभ पहुँचाता है । यह मुख्यतः निम्नलिखित बातों पर ध्यान देता है :
- मृदा की उरवरकता को लम्बे समय तक बनाऐ रखना ।
- कीटों और पौधौं की बीमारीयों का निवारन करना ।
- यह सुनिश्चित करनाकि पानी स्वच्छ और सुरक्षित रहे ।
- उन्हीं संसाधनों का प्रयोग करना जो या तो किसानों के पास पहले से हो या जिनपें कम खर्च हो ।
- पौष्टिक भोजन का उत्पादन, जानवरों का चाऱा, अच्छी कीमत पर बेचने के लिएउच्च गुणवत्ता कि फसलें ।
आधुनिक , गहन कृषि कई समस्याओं का कारण बनता है जो कि निम्नलिखित हैं :
- कृत्रिम उर्वरकोंआसानी से मिट्टी में घुल जाता है और नदियों, झीलोंके पाठ्यक्रमों को प्रदूषित कर देता हैं ।
- लंबे समय तक अप्राकृतिक खाद का प्रयोग करने सेमिट्टी की उर्वरकता कम हो जाती है और कीटनाशक आसानी से हवा और बारिश से घुल जाता है ।
- उर्वरकों पर अधिक निर्भरता बढ़ जाती हैं ।
- कृत्रिम कीटनाशक लंबे समय तक मिट्टी में रह सकते है और खाद्य श्रृंखला का हिस्सा बन जातें है, जहां वे पशुओं और मनुष्यों के शरीर में प्रवेश कर के स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन जाते हैं ।
- कृत्रिम रसायन मिट्टी में रहने वाले सूक्ष्म जीव नष्ट करकेमिट्टी की संरचना और वातन को खराब कर देता है जिसके परिणामस्वरूप मिट्टी के पोषक तत्वों की उपलब्धता मे कमी हो जाती है ।
- के रूप में वे कृत्रिम कीटनाशकों के अधिक प्रयोग सेकीट और रोग अधीक प्रतिरोधी हो गऐ है जिन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो गया है।
जैविक पद्धति द्वारा व्याधि नियंत्रण के कृषकों के अनुभव
- गौ-मूत्र
- नीम-पत्ती का घोल/निबोली/खली
- मट्ठा
- मिर्च/लहसुन
स्वस्थ फसल
स्वस्थ फसलों के लिये आवश्यक है कीकिसानमृदा के स्वास्थ का पुरा ख्याल रखें जिसमें मिट्टी की संरचना, उम्र, पोषण आदी शामिल है ।
कृत्रिम कीटनाशकोंका प्रयोग करने सेफसल को कुछ समय के लिये फायदा मिलता है किन्तु कुछ समय बाद उतनी ही पैदावर के लिए अधिक मात्रा में कीटनाशकोंका प्रयोग करना पड़ता हैं । कृत्रिम कीटनाशक मृदा में कोई जैविकपदार्थ नहीं जोड़ते हैं बल्कि इनके प्रयोग से मृदा के स्वास्थ को नुकसान ही पहुँचता है ।
मृदा भी एक जीवितप्रणालीही है क्योंकी इसमें कई सुक्ष्म प्राणी निवास करते है जो न केवल इसे जीवित रखते हैं बल्की इसमें ऊर्वक भी जोड़ते हैं और मृदा कीपुनरावृत्तिमें सहायता करते है ।
फसलों का चयन
प्रत्येक फसल और फसल की प्रजाती की अपनी विशिष्ट जरूरत होती है। कुछ स्थानों में इनकी अच्छी पैदावार होती है जबकी अन्य स्थानों में ऐसा नहीं होता है। फसलों की पैदावार को निम्नलिखित बातें प्रभावित करतीं हैं :
- मृदा का प्रकार
- वर्षा
- भुमि की उच्चता
- तापक्रम
- पोषक तत्वों के प्रकार और मात्रा
- पानी की आवश्यक मात्रा
यही कारक फसल की पैदावार को प्रभावित करते है और उसके बढ़ने में सहायता करते हैं ।
फसलों का चक्रिकरण
एक ज़मीन पर बार बार एक ही प्रकार की फसल की पैदावार करने से भी मृदा की
उर्वरता में कमी हो जाती हैं और ये बातें मिट्टी में कीटों , रोगों और मातम के निर्माण को प्रोत्साहित करते हैं । फसलों के स्थान को हर वर्ष बदलते रहना चाहिए और कुछ वर्षों के लिए मूल स्थान पर वापस नहीं लाना चाहिए । जैसे - सब्जियों की फसल के लिए न्यूनतम3 से 4 वर्ष का अन्तराल रखना चाहिए ।
उर्वरता में कमी हो जाती हैं और ये बातें मिट्टी में कीटों , रोगों और मातम के निर्माण को प्रोत्साहित करते हैं । फसलों के स्थान को हर वर्ष बदलते रहना चाहिए और कुछ वर्षों के लिए मूल स्थान पर वापस नहीं लाना चाहिए । जैसे - सब्जियों की फसल के लिए न्यूनतम3 से 4 वर्ष का अन्तराल रखना चाहिए ।
इस प्रकार से फसल के चक्रिकरण का अर्थ एक ऐसी प्रणाली से है जहां मिट्टी की उर्वरता को बनए रखने के लिए फसल कटने के बाद उसे कुछ समय के लिए खाली छोड़ दिया जाता है ताकी वह अपनी ऊर्वरक क्षमता को पुन: स्थापित कर सके ।
फसल के चक्रिकरण से प्राकृतिक शिकारियों को भी जीवित रहने और बढ़ने में सहायता मिलती है क्योंकी इसमें उन्हे विविध प्रकार के निवास और भोजन का स्रोत प्रदान होता है ।
एक साधारण 4 वर्षकेचक्रिकरण में निम्न फसलों के साथ मक्का और सेम, एक रूट फसल और अनाज शामिल होगा:
- घास या झाड़ी परती (एक परती अवधि जहां कोई फसलनहीं उगाई जाती हैं) ।
- एक फली फसल जो केवल लाभ के लिए उगाई जाती है और हरी खाद का भी काम करती हैं।
हरीखाद फसल के आवश्यक गुण
1. फसल में वानस्पतिक भाग अधिक व तेजी से बढ़ने वाली हो।
2. फसलों की वानस्पतिक भाग मुलायम और बिना
फसल के लिए खाद तैयार करना
खाद एक प्रकार का जैविक पदार्थ होता है जो की पेड़, पौधे और जानवरों के अवशेषों से बनता है, जिसे बैक्टीरिया और अन्य सुक्ष्म जीवों कीसहायता से कुछसमयावधी के लिए सड़ाया जाता है । इस प्रकार पत्ते, फलों की खाल और पशु खाद आदि खाद बनाने के लिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है ।
पौधे
मिट्टी ,
पानी और हवा से पोषण लेने के लिए मिट्टी में पोषक तत्वों को सोखते है। यही कारण है कि हमेंमिट्टी मे हर साल उर्वरक मिलाना पड़ता है ।
कई
सालों से,किसानों ने उनकी फसलों के लिए कृत्रिम खाद
"मुक्त"
खाद का इस्तेमाल करना शुरू किया है। जो जैविक कृषि के अन्तरगत आता है । खाद बचे हुए खाद्य पदार्थों और अन्य कतरे से बाहर घर पर बनाया जा सकता है जिस पर और लगभग कोई खर्च नहीं किया जाता है।
जैविक खाद तैयार करना
जैविक
कृषक,को मिट्टी को पोषकऔर समृद्ध बनाने के लिए कहीं न कहीं से शुरूआत करनी पड़ती है, और इसके लिए उसे पता होना चाहिए कि जैविक खाद बनाने के संसाधन कहाँ से प्राप्त होंगे, और जैविक खाद वह खुद कैसे बना सकता है । जैविक खाद को घर में खुद से बनाने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं :
1रसोई के कचरेसे खाद बनाने की विधि :
अनिवार्य
रूप से, ग्रामीणों को रसोई के कचरे की कम पैमाने पर होने वाली एरोबिक अपघटन के बारे में बताया जाता है और उसे कैसेउपयोग में लाया जाए इस के लिए प्रशिक्षित किया जाता है । इस खाद को बनाने की विधि निम्नलिखित हैं :
·
कैंटीन, होटल और खाने के आउटलेट आदि से रसोई कचरे इकठ्ठा कर लीजिए ।
·
लगभग 1 फुट गहरा गड्ढा खोदेंऔर एकत्रीत कचरे कोउसमें भर लें।
·
इन अपशिष्ट युक्त गड्ढेमें, लगभग 250 ग्रामरोगाणुओं कोडाला जाता है जोअपघटन बढ़ाने का काम करते हैं ।
·
पानी और मिट्टी की एक परत को साथ मिश्रित कर के कवर द्वारा बीछा दीया जाता है ताकी नमी की मात्रा को बनाए रखा जा सके ।
·
इसे लगभग 25-30 दिनों के लिए इसी तरह के रूप में छोड़ दिया जाता है और अपशिष्ट माइक्रोबियल अमीर खाद में परिवर्तित हो जाता है ।
इस प्रक्रिया को हर 30 से 35 दिनों के बाद दोहराया जा सकता है ।
2. सूखी जैविक उर्वरक:
सूखी
जैविक खाद ,को इन में से किसी भी एक चीज़ से बनया जा सकता है - रॉक फॉस्फेट या समुद्री घास और इन्हे कई अवयवों के साथ मिश्रितकिया जा सकता है।लगभग सभी जैव उर्वरक पोषक तत्वों की एक व्यापक सरणी प्रदान करते हैं, लेकिन कुछ मिश्रणों को विशेष रूप से नाइट्रोजन ,
पोटेशियम, और फास्फोरस की मात्रा को संतुलित रखने के लिए और साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्व प्रदान करने के लिए तैयार कियाजाता हैं।
हालाँकी
आज के समय में कई वाणिज्यिक मिश्रणउपलबद्ध हैं ,
लेकिनअलग-अलग संशोधन के मिश्रण से इन्हे खुद भी बना सकते हैं।
3. तरल जैव उर्वरक
तरल उर्वरक का प्रयोग पौधोमें पोषक तत्वों को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है इसे हर महीने या हर 2 सप्ताह में पौधो पे छिड़का जा सकता है ।बस एक बैग स्प्रेयर की टंकी में तरल जैव उर्वरक केमिश्रण को भर कर पत्ते पर स्प्रे कर सकते है । इस खाद को चाय के पत्तो से या समुद्री शैवाल से बनाया जा सकता है ।
4. विकास बढ़ाने वाले उर्वरको का प्रयोग
ग्रोथ
बढ़ाने में मदद करने वालेउर्वरक वह होते है जो कि पौधों को मिट्टी से अधिक प्रभावी ढंग से पोषक तत्वों को अवशोषित कर सकने मे मदद करते हैं।सबसे आम विकास बढ़ाने वाला उर्वरकसिवार है जो समुद्री घास की राख से बनती है । यह सदियों से किसानों के द्वारा इस्तेमाल किया गया है ।
5. पंचगाव्यम्
यह
उर्वरक प्राचीन काल से भारतीयों द्वारा इस्तेमाल किया जाता रहा है ।' पंच '
शब्द का अर्थ है पांच, और 'गाव्यम्’शब्द का अर्थ है गाय से प्राप्त होने वाला तत्व । इस खाद को बनाने की विधि निम्नलिखित हैं :
·
एक मटका लें।
·
उसमें गाय का दूध, दही , मक्खन, घी ,
मूत्र, गोबर और निविदा नारियल डाल लें ।
·
लकड़ी की छड़ी की मद्द से अच्छी तरह से मिलाएं ।
·
तीन दिनों के लिए मिश्रण युक्त बर्तन को बंद कर के रखें।
·
तीन दिनों के बाद केले और गुड़ को उसमें डाल दें ।
·
इस मिश्रण को हर रोज (21 दिनों के लिए) मिलाते रहें, और यह सुनिश्चित करें की मिश्रण को मिलाने के बाद बर्तन को अच्छे से बंद किया गया है या नहीं।
·
21 दिनों के बाद मिश्रण से बू उत्पन्न होने लगती है ।
·
फिर पानी के 10 लीटर के मिश्रण के 200 मिलीलीटर तैयार मिश्रण मिला लें और पौधों पर स्प्रे करें।
6. खाद्य व्यंजनों से बनाया गया जैविक खाद
कुछ सरल और अपेक्षाकृत सस्ती सामग्री के साथ, यह खुद के घर के बने भोजन से बनाने में काफी आसान है।निम्नलिखित कुछ उदाहरण हैं , जिससे कि आप देखें सकते हैं कीइसे केसे बनाया जा सकता है
निम्नलिखितसामानो को समान रूप से मिला लें, (
दिये गए भागों में )
·
4 भागों बीज का भोजन
·
1/4 हिस्सा साधारण कृषि चूना ,
अच्छे से पिसा हुआ
·
1/4 हिस्सा जिप्सम (या दोगुणा कृषि चूना)
·
1/2 हिस्सा डोलोमिटीकचूना
अच्छे परिणाम के लिए उसमे निम्नलिखित और मिलाएँ –
·
1 भागअस्थि चूर्ण, रॉक फॉस्फेट या उच्च फॉस्फेटसे बनी खाद का उपयोग करें
·
1/2 हिस्से के लिए 1 भाग सिवार भोजन ( या 1 हिस्सा बेसाल्ट का धूल)
7. एपस्मनमक उर्वरक संयंत्र
·
1 चम्मच बेकिंग पाउडर
·
1 चम्मच एपस्म नमक
·
1 चम्मच शोरा
·
आधा चम्मच अमोनिया
एक कंटेनर में 1 गैलन पानी के साथ मिला कर प्रयोग मे लाए है ।
8. जैविक खाद बनाने के लिए आम घरेलू खाद्य सामग्री
·
ग्रीन चाय - हरी चाय का एक कमजोर मिश्रण पानी में मिला कर पौधों पर हर चार सप्ताहके अन्तराल पर इस्तेमाल किया जा सकता है(एक चम्मच चाय मेंपानी के 2 गैलनध)।
·
जिलेटिन - जिलेटिन खाद पौधों के लिए एक महान नाइट्रोजन स्रोत हो सकता है ,
हालांकि ऐसा नहीं है की सभी पौधों नाइट्रोजन के सहारे ही पनपे। इसे बनाने के लिए गर्म पानी की 1 कप में जिलेटिन की एक पैकेज भंग कर के मिला ले, और फिर एक महीने में एक बार इस्तेमाल के लिए ठंडे पानी के 3
कप मिला लें ।
·
मछलीघर का पानी - मछलीघर टैंक से पानी बदलते समय उसका पौधों को पानी देने के काम आ सकता है । मछली अपशिष्ट एक अच्छ उर्वरक बनाता है।
इस प्रकार के खाद सस्ते और बनाने में आसान होते हैं और साथ ही बहुत प्रभावी भी होते हैं इनके प्रयोग से मिट्टी और फसल की गुणवत्ता में काफी सुधार होता है, जिन में से कुछ निम्नलिखित हैं :
- खाद मिट्टी की संरचना में सुधार लाता है, जिसके कारण मिट्टी में हवा काप्रवाह अच्छे से संमभ्व हो पाता है , जल निकासी में सुधार होता है और साथ ही साथ पानी के कारण होने वाली मिट्टी का कटाव भी कम कर हो जाता है ।
- खाद मिट्टी में पोषक तत्वों को जोड़ देता है ताकी उन्हे पौधें आसानी से सोख़ सकें और उन्हे पोषक तत्वों को लेने में आसानी हो ताकी फसल की पैदावार अच्छी हो ।
- खाद मिट्टी की जल धारण करने की क्षमता में सुधार लाता है । इस कारण सूखे के समय में भी मिट्टी मे नमी बनी रहती है।
- मिट्टी में खाद मिलाने से फसल में कीट कम लगते हैं और फसल की रोगप्रतीरोधक छमता में वृद्धिहोती हैं ।
खाद, रासायनिक उर्वरकों से कई अधीक फायदेमदं हैं । रासायनिक उर्वरकों पौधों को तो फायदा पहुँचातें हैं किन्तु इनसे मिट्टी को कोई फायदा नहीं पहुँचता है । ये आम तौर पर उसी ऋतु में पैदावार बढ़ाते है जिसमें इनका छिड़काव कियाजाता हैं । क्योंकि खाद मिट्टी को पोषक तत्व प्रदान करती है और मिट्टी की संरचना में सुधार लाती है , इस वज़ह से इसकेलाभकारी प्रभाव लंबे समय तक चलते है ।
उपलब्ध सामग्री और जलवायु के आधार पर खाद बनाने के लिए कई प्रकार हो सकते हैं, उदाहरण के लिए :
- इंदौर विधि
- बैंगलोर विधि
- गर्म करने की प्रक्रिया / ब्लॉक विधि
- चीनी उच्च तापमान ढेर
- नाडेप
- पिट कम्पोस्ट
- ट्रेंच कम्पोस्ट
- भू-नाडेप/ कच्चा नाडेप
- टोकरी कम्पोस्ट
- बोमा कम्पोस्ट
- पक्का नाडेप
- नाडेप फास्फो कम्पोस्ट
- टटिया नाडेप
- बायोगैस स्लरी
- वर्मी कम्पोस्ट
- लकड़ी की राख
- नीम व करंज खली
पलवार
पलवार करने का मतलब होता है ज़मीन को पुआल, सूखी घास, पत्ते या फसल के अवशेषों की एक ढीलीपरत से ढक देना । सामान्य रूप से हरी वनस्पतियों का प्रयोग नहीं किया जाता है क्योंकी यह कीट और फंगल रोगों को आकर्षित कर सकतीं हैं ।
पलावर का मिट्टी पर कई प्रकार से प्रभाव पड़ता है जो पौधों की वृद्धि में सुधार लाने में मदद करता है :
- वाष्पीकरण के कारण होने वाली पानी की कमी को घटाना ।
- मिट्टी तक पहुँचने वाली प्रकाश की मात्रा को कम करना ताकी ज़गली घास की वृद्धि न हो सके ।
- मिट्टी का कटाव की रोकथाम ।
- मिट्टी की ऊपरी परत में सूक्ष्म जीवों की संख्या में वृद्धि लाना ।
- मिट्टी में पोषक तत्वों को जोड़ना और मिट्टी की संरचना में सुधार
- मिट्टी में जैविक पदार्थ जोड़ना ।
वैकल्पिक पलवार विधी में काले रंग की प्लास्टिक की चादर का कपड़ा या गत्ते शामिल किये जाते हैं। हालांकि यह सब सामग्रियां मिट्टी में पोषक तत्वों को जोड़ने या इसकी संरचना को सुधारने में कोइ सहायता नहीं करते ।
पलावर के उपयोग की विधी:
- पलावर को हमेशा गर्म, गीली मिट्टी के ऊपर बिछाना चाहिए, यदी पलावर को सूखी मिट्टी के ऊपर बिछाया जाएतो मिट्टी सूखी ही रह जाएगी ।
- मिट्टी के ऊपर बिछाइ गइ पलावर की परत की मोटाई का निरीक्षण अच्छे से करना चाहिए क्योंकी यदी परत की मोटाई अधीक हुई तो गीली घास के कारन हवा का प्रवाह रुक जाएगा जिससे कीटों को बढ़ने में आसानी होगी ।
- गीली घास के माध्यम से लगाए बीजों के अंकुरण को अनुमति देने के लिए, कम से कम 10 सेमी की एक परत इस्तेमाल किया जाना चाहिए ।
- लगातार उगने वाली मातम को साफ करने के लिए भूमि की 10 सेमी या उससे अधिक की एक परत के एक क्षेत्र को इस्तेमाल किया जा सकता है ।
आवरण फसल एंव पलवार
आवरणफसल का प्रयोग उन फसलों में किया जाता है जिनकी 2लाइनों के बीच काफी खाली जगह होती है जो वर्षा ऋतु में मृदा अपरदन एवं पोषक तत्व क्षरण को बढ़ावा देती है। इस खाली जगह में कोई कम ऊचांई एंव उथली जड़ों वाली दाल वर्गीय प्रजाति की खेती करते है, जो खाली जगह पर आवरण बनाकर मृदा संरक्षण के साथ साथ पोषक तत्व क्षरण को भी निंयत्रित करती है।
हरी खाद
हरी खाद , अक्सर दो अलग फसलों को ऊगाने के बीच़ के अन्तराल में ऊगाई जाती है जिसके कारण इसे कवर फसल के रूप में भी जाना जाता है, यह मिट्टी की संरचना का ख्याल रखता है, उसके जैविक पदार्थ और मिट्टी के पोषक तत्वों में सुधार लाता हैं।
यह कृत्रिम उर्वरकों से अधिक सस्ता विकल्प हैं और पशु खाद के पूरक के रुप भी इस्तेमाल किया जा सकता ।
हरी खाद को उगानाफली फसल उगाने जितना आसान नहीं होता है ।हरी खाद को आमतौर पर ,मिट्टी के अन्दर डाल दिया जाता है जब पौधों काफी जवान होते हैं ।
यह अपने हरे पत्तों के कारण उगाए जाते है क्योंकी उनमें पोषक तत्व अधीक मात्रा में होतें है और यह मिट्टी को अच्छा कवर प्रदान करते है । इन्हें फसलों के साथ या अकेले उगाया जा सकता ।
हरी खाद :
- पौधो में पोषक तत्वों और जैविक पदार्थो कि पुर्ति बनए रखता है ।
- मिट्टी की उर्वरता में सुधार लाता है ।
- मृदा संरचना में सुधारलाता है ।
- मिट्टी की पानी रोकने की क्षमता में सुधार लाता है ।
- मिट्टी के कटाव में नियंत्रण करता है ।
- घास की वृद्धि को रोकने में सहायता करता है ।
- पोषक तत्वों का मिट्टी से बह कर पानी में घुलना रोकता है, उदाहरण के लिए से जब जमीन मुख्य फसलों को उगाने के लिये इस्तमाल नहीं होती है। रेशे वाली हो ताकी जल्दी से मिटटी मे मिल जायें।
3. फसलों की जड़े गहरी हो ताकी नीचे की मिटटी को भुरभुरी बना सके और नीचे की मिटटी के पोषक तत्व उपरी सतह पर इकटठा हो।
4. फसलों की जड़ो में अधिक ग्रंथियां हो ताकि वायु के नाइट्रोजन को अधिक मात्रा में सिथरीकरण कर सकें।
5. फसलों का उत्पादन खर्च कम हो तथा प्रतिकुल अवस्था जैसे अधिक ताप] वर्षा इत्यादि के प्रति सहनशील हो।
हरी खाद उगाने की विधि :-
सिंचित अवस्था में मानसून आने के 15 से 20 दिन पूर्व या असिंचित अवस्था में मानसून आने के तुरंत बाद खेत अच्छी प्रकार से तैयार कर हरीखाद की फसल के बीज बोना चाहिए। हरीखाद बोने के समय 80 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 40-60 कि.ग्रा/हे. सल्फर देना चाहिए। इसके बाद जो दूसरी फसल लेनी हो उसमें सल्फर की मात्रा देने की आवश्यकता नहीं होती। तथा नत्रजन में भी 50 प्रतिशत तक की बचत की जा सकती है। जब फसल की बढ़वार अच्छी हो गयी हो तथा फूल आने के पूर्व इसे हल या डिस्क हैरो द्वारा खेत में पलट कर पाटा चला देना चाहिए। यदि खेत में 5-6 सें.मी. पानी भरा रहता है तो पलटने व मिटटी में दबाने में कम मेहनत लगती है। जुताई उसी दिशा में करनी चाहिए जिसमे पौधों को गिराया गया हो। इसके बाद खेत में 8-10 दिन तक 4-6 सें.मी. पानी भरा रहना चाहिए जिससे पौधों के अपघटन में सुविधा होती है। यदि पौधों को दबाते समय खेत में पानी की कमी हो या देरे से जुताई की जाती है तो पौधों के अपघटन में अधिक समय लगता है साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इसके बाद लगायी जाने वाली फसल में आधार नत्रजन की मात्रा नहीं दी जानी चाहिए। इस विधि को अर्थात हरी खाद को जिस में उगाकर उसी खेत में दबाने की प्रक्रिया को हरी खाद की सीटू विधि कहते है। यह विधि उस खेत में प्रयोग की जाती है जहां पानी की प्रचुर मात्रा हो और जहां पानी की मात्रा पर्याप्त नहीं है वहां हरीखाद की फसल एक क्षेत्र में उगाकर उसकी पतितयां व तना दूसरे क्षेत्र में ले जाकर दबाते है। इस विधि को हरी पतितयों से हरी खाद के नाम से जानते है।
खरपतवार नियंत्रण
जैविक खेती प्रणालियों का उद्देश्य खरपतवार का खात्मा नहीं है बल्की उसका नियंत्रण करना है ।खरपतवार नियंत्रण का मतलब फसल विकास और उपज पर मातम के प्रभाव को कम करने से है।
जैविक कृषि में,मातम को रोकने के कई तरीकेंहोते हैं जो निम्नलिखित है :
- फसल का चक्रिकरण
- होइंग
- पलावर, जो मिट्टी को कवर कर के खरपतवार के बीजों को अंकुरीत होने से रोकता है ।
- हाथ से निराई या यांत्रिक निराईका उपयोग करना ।
- फसलों का रोपण एक दुसरे के करीब करना ताकी, मातम के उगने के लिए जगह न बचें ।
- हरी खाद या कवर फसलों का प्रयोग करना ताकी मातम न उगे ।
- खेती को एक निश्चित अंतराल पर और उचित समय पर दोहराया जाना चाहिए, वो भी तब जब मिट्टी नम हो । ध्यान रखा जाना चाहिए कि खेती मिट्टी के कटाव का कारण न बने ।
- खरपतवार पर चरने के लिए पशुओं का प्रयोग करना ।
मातम के भी कुछ उपयोगी उद्देश्यों हो सकते है। जैसे - वे जानवरों के चारे के रुप और लाभप्रद कीड़ों के घर के रुप में, मानव उपयोग के लिए भोजन के रुप में और मिट्टी के लिए कटाव से सुरक्षा प्रदान करता हैं ।
खरपतवार नियंत्रण का समय
खरपतवार उगने से पहले (क्यारी की तैयारी से पहले) “खरपतवार-नाशकों” का प्रयोग उचित होता है. अगर यह संभव ना हो तो क्यारी में से हाथ द्वारा या वीडर द्वारा खरपतवार को निकालना चाहिए. शुष्क मौसम में उपचार के ३० से ४० दिन तक धान के बीज की क्यारी को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए व शीत मौसम में उपचार के ४० से ५० दिन तक धान के बीज की क्यारी को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए
प्राकृतिक कीट और रोग नियंत्रण
कीट और रोगों प्रकृति का हिस्सा हैं । आदर्श व्यवस्था में शिकारियों और कीटों के बीच एक प्राकृतिक संतुलन बना रहता है । यदी इस व्यवस्थाप्रणाली में असंतुलन होता है तो एक जनसंख्या दुसरी जनसंख्या पर प्रभावी हो सकती है क्योंकि यह किसी अन्य के द्वारा शिकार नहीं कि जाती है ।
प्राकृतिक नियंत्रण का उद्देश्य कीट और शिकारी के बीच एक प्राकृतिक संतुलन बहाल करने से है और एक स्वीकार्य स्तर तक कीट और रोगों को नियत्रिंत रखने से है ।इसका उद्देश्य उन्हें पूरी तरह से उन्मूलित करना नहीं है ।
एकीकृत कीट प्रबंधन के अर्न्तगत कीट नियन्त्रण के सरल और प्रभावी तरीकों को इस प्रकार समावेष करते हैं कि कीट नियंत्रण प्रभावी हो, किसान और सब्जी उपभोक्ता दोनों लाभान्वित हों और वातावरण भी सुरक्षित रहे। इसमें जैविक, रासायनिक, भौतिक, यांत्रिक नियंत्रण एवं सस्य क्रियाओं के समुचित चुनाव एवं उनके समावेष द्वारा एकीकृत कीट प्रबंन्धन किया जाता है जिससे मित्र कीटों की संख्या एवं वातावरण की स्वच्छता पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। तुड़ाई के बाद सब्जियों में रासायनिक दवाओं के अवषेङ्ढ अधि मात्रा में पाए जाने से मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे सब्जियों के एकीकृत कीट प्रबन्धन का महत्व और बढ़ गया है।
एकीकृत नाषीजीव प्रबन्धन के तरीकों की सफलता मुख्यत: हानिकारक कीट एवं मित्र कीटों की निगरानी के आधार पर कीट प्रबंधन के विभिन्न घटकों के एकीकरण कर सही निर्णय को लागू करने के ऊपर निर्भर है।
सस्य क्रियाओं का एकीकृत नाषीकीट प्रबन्धन में महत्व कीट प्रबन्धन में इस घटक के ऊपर कोई अतिरिक्त व्यय नहीं होता है एवं यह वातावरण को सुरक्षित व अधिक टिकाऊ बनाता है, परन्तु इसकी योजना बना लेनी चाहिए। सस्य क्रियाओं का चयन ऐसा होना चाहिए जिससे नाष्कीकाटों के ऊपर प्रतिकूल एवं मित्र कीटों के ऊपर अनुकूल प्रभाव पड़े। इसके अन्तर्गत सही किस्मों का चुनाव, बुवाई एवं रोपाई के समय में परिवर्तन, कीट प्रपंच फसल चक्र व अन्त: फसलों का सही चुनाव आदि है।
कीट नियंत्रण के प्रकार
- जैविक कीट नियंत्रण
- प्रजनन क्षेत्रों का उन्मूलन
- जहरीला चारा
- खेतों को जलाना
- शिकार
- जाल
- जहरीला स्प्रे
- आकाशीय धूमन
- आकाशीय उपचार
- जीवाणुमुक्त बनाना
- संक्रमित पौधों का विनाश
- प्राकृतिक कृंतक नियंत्रण
रसायनों का सुरक्षित चयन
रसायनों का अनियमित और अत्यधिक प्रयोग करने से कीटों में प्रतिरोधी क्षमता का अत्यधिक विकास होता है और हानिकारक रासायनिक अवषेङ्ढों की वातावरण में वृध्दि होती है। एकीकृत कीट प्रबन्धन में अगर दूसरे कारकों के साथ सही सन्तुलन बनाकर सुरक्षित रसायनों की सही मात्रा एवं अन्तराल में छिड़काव हो तो कीटनाषी रसायन बहुत प्रभावी होते है। विभिन्न कीटनाषियों का अलगश्अलग प्रतिक्षाकाल होता है। दवा छिड़कने के बाद प्रतिक्षाकाल के बाद तुड़ाई करने से रासायनिक अवयवों के अवषेङ्ढ नहीं रहते है।
संष्लेङ्ढित वानस्पतिक रसायन और वृध्दि नियामक रसायन को मिलाकर प्रयोग करने की विधि को समन्वित कीट नियन्त्रण के अंर्तगत रखा गया है। नीम से निर्मित वानस्पतिक रसायन का प्रयोग करके हरा फुदका, माहो और पर्ण सुरंगक कीटों का नियंत्रण आसानी से किया जा सकता है।
रासायनिक नियंत्रण
कीटनाशकों कीट की समस्या का समाधान नहीं है । यहाँ तीन महत्वपूर्ण कारणदिए जा रहे हैं की क्यों प्राकृतिक नियंत्रण का कीटनाशको केप्रयोग से अधिक बेहतर है:
लोगों के लिए सुरक्षित
कृत्रिम कीटनाशक जल्दी ही फूड चेन और पानी के पाठ्यक्रम में अपना रास्ता बना लेते है । जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए खतरों बना सकता हैं ।
मानव स्वास्थ्य पर ऐसे खाद्य पदार्थ का (विशेष रूप से फल और सब्जियों) जिन पर अभी भी कीटनाशकों का छिड़काव कियाजाता है नुकसान पहुँचा सकता ।
लागत
प्राकृतिक कीट और रोग नियंत्रण का प्रयोग अक्सर रासायनिक कीटनाशकों को लागू करने की तुलना में अधिक सस्ता होता है, क्योंकि प्राकृतिक तरीकों में बाहर से सामान नहीं खरीदा जाता है।इसमें वही
उत्पाद और सामग्री प्रयोग की जाती है जो घर में और खेत के आसपास पहले से ही ऊपलब्ध हेती हैं।
उत्पाद और सामग्री प्रयोग की जाती है जो घर में और खेत के आसपास पहले से ही ऊपलब्ध हेती हैं।
पर्यावरण के लिए सुरक्षित
कीटनाशको का पर्यावरण पर काफी हानिकारक प्रभाव परता है ।
प्राकृतिक नियंत्रण
कई प्रकार से जैविक किसान कीट और रोगों को नियंत्रित कर सकते हैं, जो की निम्नलिखित हैं :
- स्वस्थ फसलों की बुवाई करना जिससे कि कीट और रोगों से उन्हें कम से कम नुकसान भुगतना पड़े ।
- विशिष्ट कीट और रोगों से बचाव के लिए प्राकृतिक प्रतिरोधोक फसलों का चयन करना चाहिए। स्थानीय किस्मों में स्थानीय कीट और रोगों से बचने की संभावना अधीक होती है ।
- फसलों का समय पर रोपण करने से कीटोंके द्वारा होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है।
- कीटों से बचनेके लिए साथी रोपण का सहारा लेना, जैसे प्याज या लहसुन का चयन ।
- कीटों को फँसाने या पकरने के ऊपाय खोजना ।
- फसल चक्रिकरण का उपयोग करना ताकी कीट चक्र रोकने में मदद मिले सके और अगले सत्र के लिए कीट के लाड़वा नष्ट हो जाएँ ।
- प्राकृतिक शिकारियों को प्राकृतिक निवास उपलब्ध कराना ताकी कीट नियंत्रण को प्रोत्साहित किया जा सके। ऐसा करने के लिए , किसानोको एसे कीड़े और अन्य जानवरों कि पहचान करना सिखाना होगा जो किड़ो को नियंत्रित करने मेंसहायता करते हैं ।
आनुवंशिक विविधता
एक ही प्रकार की फसल के भीतर भी पौधों के बीच कई प्रकार के मतभेद हो सकता है। उदाहरण के लिए – उनमें रोगों का विरोध करने की क्षमता में भिन्न हो सकते हैं । इन मतभेदों को ही आनुवंशिकविविधता कहते हैं।
किसानों द्वारा उगाई गीई परंपरागत फसलों में आधुनिक नस्ल की फसलों की तुलना में अधिक से अधिक आनुवंशिक विविधता शामिल होती है ।
पारंपरिक किस्मों को किसानों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कई सदियों के अन्ताल में चयनित किया गया है ।हालांकि कई पारंपरिक किस्मों को आधुनिक किस्मों के द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है , किन्तु बीज अक्सर अभी भी स्थानीय स्तरके ही बेचे जा रहे हैं ।
एक जैविक किसान की कोशिश होनी चाहिए की :
- एक ही क्षेत्र में अलग असग फसलों को एक मिश्रण के रुप मेंऊगाया जाए ( जैसे मिश्रित फसल , इंटरक्रोपिंग , पट्टी फसल आदी ) ।
- एक ही फसल की विभिन्न किस्में को विकसित करना ।
- यथा संभव स्थानीय फसलों की किस्मों का फसलके रूप उपयोग करना ।
- हर साल खेत के बाहर से बीज खरीदने के बज़ाय अपने खेत के बीजों को बचा के रखना ।अन्य किसानों के साथ बीज का आदान-प्रदान करने से भी विविधता को बढ़ाने में मदद मिलती हैं , और कई पारंपरिक फसल की किस्मों के अस्तित्व को सुनिश्चित करने में सहायता मिलती है क्योंकी उन्हें आधुनिक किस्मों से बदलाजा रहा हैं ।
पानी का सावधानी से प्रयोग करना
बंजर भूमि में पानी के उपयोग में सावधानी बरतना भी जैविक खेती का ही एक हिस्सा है ।
अन्य संसाधनों के साथ में, जैविक किसानों को उसी पानी का प्रयोग करना चाहिए जो स्थानीय रूप से उपलब्ध हो और पानी की खपत पर नियंत्रण रखा जा सके ।
पानी का सावधानी से उपयोग करने के कई तरीके हो सकते है जो की निम्नलिखित हैं :
- सीढ़ीदार खेती, बारिश के पानी को घाटियों या जलग्रहण में और सावधानी पूर्वक सिंचाई में उपयोग करना।
- मिट्टी में जैविक पदार्थो कोजोड़ना ताकी उसके पानी धारण करने की क्षमता में सुधार हो सके ।
- पलावर का उपयोग करके मिट्टी की सतह में नमी को बनाए रखना और उसके पानी धारण करने की क्षमता को बढ़ाना ।
पशुपालन
एक जैविक प्रणाली में, जानवरों के कल्याण को भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।
- पशुओं को सीमित स्थान में नहीं रखना चाहिए जहाँ उन्हें खड़े होने या चलने फिरने में परेशानी हों । मगर उन्हे खेतों को नुकसान पहुँचाने से भी रोकना चाहिए।
- जानवरों के लिए चारा जैविक तरीके से ही उगाना चाहिए।
- फसल की नस्लों को स्थानीय जरूरतों और स्थानीय परिस्थितियों और संसाधनों के अनुरूप ही चुना जाना चाहिए ।
इन कारकों से पशुओं के स्वास्थ को सुनिश्चित करने में मदद मिलती हैं, और उन्हें अधिक स्वस्थ, बेहतर और रोगों का विरोध करने में सक्ष्म बनाता हैं और किसान के लिए अच्छी पैदावार प्रदान करने में सक्षम बनाता हैं।
जैविक खेती के बारे में मिथकों और भ्रम :
जैविक खेती के बारे मे चारों ओर काफीभ्रम फैला हुआ हैं जिनमें से कुछ अधिक आम भ्रम निम्नलिखित हैं :
- जैविक खेती में पैदावार रासायनिक खेती से कमहोती हैं ।
- जैविक खेती किफायती नहीं है।
- आप कमपोस्टका उपयोग करके पर्याप्त पोषक तत्वों की आपूर्ति नहीं कर सकते ।
- जैविक खेती में काफी पैसा है ।
नेफेड विधी परीचय
यह सच है कि कीटनाशकों और उर्वरकों के अधिक प्रयोग से वातावरण, मिट्टी, जल, वायु, पशु और हमारे शरीर में रसायन की मात्रा अधिक बढ़ जाती है | जैविक कृषि एक एसी उत्पाद प्रंबंधन पद्धति है जो एग्रो इको सिस्टम की स्वास्थ्य को बढ़ाती है | जो बायोडाइवर्सटी,न्यूट्रियंट बायोलॉजिकल साइकलस,सोयल माइक्रोबायल और योकैमिकल एक्टिविटी से संबंधित है | नेफेड ने वर्ष 2007 में राष्ट्रीय बागवानी मिशन और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत जैविक कृषि का कारोबार आरंभ किया ताकि किसानों कई गैर - रासायनिक पद्धति को लोकप्रिय बनाया जा सके | इसका अन्य प्रयोंजन संघ के लिए अतिरिक्त कारोबार सृजित करना है| वर्तमान में नेफेड उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब में जैविक एडाप्शन और सर्टिफिकेशन के अंतर्गत लगभग 65 करोड़ रु. की लागत से 5 परियोजनाएँ क्रियान्वित कर रहा है| इस परियोजना में लगभग 30,000 किसान पंजीकृत हैं और 51,000 हेक्टेयर क्षेत्र शामिल है |
नेफेड का गठन
भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ मर्यादित (नेफेड) की स्थापना गांधी जयंती के पावन अवसर पर 2 अक्तुबर,1958 को की गई थी | नेफेड बहु-राज्य सहकारी सोसायटीज अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत है | नेफेड की स्थापना कृषि उत्पादों के सहकारी विपणन को बढाने के लिए की गई थी ताकि किसानों को लाभ मिल सके | नेफेड के सदस्य प्रमुख रुप से किसान है जिन्हें नेफेड के क्रियाकलापों में सामान्य निकाय के सदस्यों के रुप में विचार प्रकट करने तथा नेफेड के संचालन कार्यो में सुझाव देने का अधिकार है एंव उनका बहुत महत्व है |
नेफेड का प्रबंधन
नेफेड का प्रबंधन इसके निदेशक मण्डल के सदस्यों में निहित है जिसमें अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक शामिल हैं | यह निदेशक मण्डल दो स्थायी समितियों के सहयोग से कार्य करता है कार्यकारिणी समिति और व्यवसाय समिति | इसके अतिरिक्त निदेशक मण्डल बहु-राज्य सहकारी सोसायटीज अधिनियम/नियमों और नेफेड की उप-विधियों के प्रावधान के अनुसार दो और समितियों/उप-समितियों का गठन भी कर सकता है ।
भारत में जैविक खेतीके बीज , पौधे सामग्री और सैपलिंगस
वित्तीय वर्ष 2010-11 में बीजों का विकास , पौध सामग्री और सैपलिंगस का कारोबार जारी रखा गया ताकि अधिकतम राजस्व और लाभ अर्जित किया जा सके | इसी वर्ष के दौरान उच्च गुणवता के सत्यापित बीजों की आपूर्ति के लिए बीज अपूर्तिकारों की सूची के देशा निर्देश , कृषि एंव बागवानी बिभागों और विभिन्न राज्यों के बीज निगमों को पौध सामग्री और सैपलिंगस के तथा तिल्हनों दालों और मक्का के सत्यापित बीजों के उत्पादन हेतु बीज उत्पादकों की सूची के देशा निर्देश और केंद्रीय प्रायोजित योजना आइसोपांम और एनएफएसएम के अंर्तगत इनकी आपूर्ति के दिशा निर्देशों में आशोधन किए गए | नेफेड ने खरीफ 2010 में 9346 अरहर के बीजों के मिनी किट्स और रबी 2010 के मौसम में आइसोपाम और एनएफएसएम के अंतर्गत 19875 सूरजमुखी के मिनी किट्स की आपूर्ति की | नेफेड ने छत्तीसगढ़ , राजस्थान , आंध्रप्रदेश , पंजाब , हरियाणा , गुजरात, उत्तराखंड, हिमांचल प्रदेश ,जम्मू एंव कश्मीर , उड़ीसा , कर्नाटक और उत्तर प्रदेश राज्यों में राज्य कृषि एंव बागवानी विभागों और बीज निगमों को गेहूँ, धान, मक्का , अरहर , उड़द , काला चना , मटर , सोयाबीन , सूरजमुखी , सब्जियों और चारे के सत्यापित बीजों की भी आपूर्ति की | वर्ष 2010-11 में नेफेड ने 40.93 करोड़ रु. के बीज , पौध सामग्री और सैपलिंगस का कारोबार किया ।
जैविक खेती के कुछ उदाहरण:
- अजोला एक विस्मयकारी अद्भुत पौधा है । दरअसल अजोला तेजी से बढ़ने वाली एक प्रकार की जलीय फर्न है, जो पानी की सतह पर तैरती रहती है। धान की फसल में नील हरित काई की तरह अजोला को भी हरी खाद के रूप में उगाया जाता है और कई बार यह खेत में प्राकर्तिक रूप से भी उग जाता है। इस हरी खाद से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और उत्पादन में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है। एजोला की सतह पर नील हरित शैवाल सहजैविक के रूप में विध्यमान होता है। इस नील हरित शैवाल को एनाबिना एजोली के नाम से जाना जाता है जो कि वातावरण से नत्रजन के स्थायीकरण के लिए उत्तरदायी रहता है। एजोला शैवाल की वृद्धि के लिए आवश्यक कार्बन स्त्रोत एवं वातावरण प्रदाय करता है । इस प्रकार यह अद्वितीय पारस्परिक सहजैविक संबंध अजोला को एक अदभुद पौधे के रूप में विकसित करता है, जिसमें कि उच्च मात्रा में प्रोटीन उपलब्ध होता है। प्राकृतिक रूप से यह उष्ण व गर्म उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। देखने में यह शैवाल से मिलती जुलती है और आमतौर पर उथले पानी में अथवा धान के खेत में पाई जाती है।
- गंगटोक:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को सिक्किम को देश का पहला जैविक कृषि राज्य घोषित करते हुए कहा कि यह राज्य जल्द ही न केवल देश में, बल्कि समूचे विश्व के लिए जैविक खेती का अग्रदूत बनेगा। पीएम मोदी ने इस अवसर पर मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग को जैविक प्रमाणपत्र प्रदान किया।
उन्होंने यहां टिकाऊ खेती एवं कृषक कल्याण पर राष्ट्रीय चिंतन बैठक को संबोधित करते हुए कहा, सिक्किम ने एक ऐतिहासिक रास्ता निकाला है और पूरी दुनिया के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया है कि प्रकृति पर ध्यान देने और उसकी हिफाजत करने की जरूरत है। पीएम मोदी ने राज्य को नेपाली भाषा में बधाई देते हुए कहा कि इस कामयाबी के साथ यह राज्य न केवल देश, बल्कि पूरी दुनिया के लिए जैविक कृषि का अग्रदूत बनेगा।
जैविक खेती के क्षेत्र में सिक्किम की सफलता का उदाहरण देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश भर में जैविक खेती के विस्तार करने की आज वकालत की ताकि कृषि क्षेत्र में सुधार हो और किसानों को उनकी उपज का अधिक लाभदायक मूल्य मिल दिलाने में मदद मिले।
यहां प्रदेशों के कृषि मंत्रियों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने हाल में घोषित फसल बीमा योजना और मृदा स्वास्थ्य कार्ड का उल्लेख किया। प्रधानमंत्री ने खेती के अनुकूल मोबाइल एप, ऑनलाईन मंडियों और खेती में मूल्य वर्धन की पहल पर जोर दिया।
मौसम की मार सहने वाले किसानों के लिए वित्तीय सुरक्षा के उपाय के रूप में मोदी ने सुझाया कि उन्हें खेती की गतिविधियों को तीन बराबर हिस्सों बांटना चाहिये.. इसमें एक हिस्सा फसल उत्पादन की नियमित खेती, आर्थिक रूप से लाभप्रद टिम्बर :इमारती लकड़ी: के लिए वृक्षारोपण और पशुपालन।
उन्होंने कहा कि टिम्बर और पशुपालन सामान्य खेती को नुकसान होने पर वैकल्पिक सहारे का काम करेंगे और किसानों को ‘बेबसी की स्थिति’ का सामना नहीं करना होगा।
फलों की बर्बादी के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि उन्होंने शेतलपेय बनाने वाली कंपनियों से कहा कि वे इन उत्पादों में पांच प्रतिशत फलों के रस का सम्मिश्रण करें ताकि किसानों को वित्तीय हानि न हो।
- हिमाचल मोटघरे
बिना सड़े-गले हरे पौधे (दलहनी अथवा अदलहनी अथवा उनके भाग) को जब मृदा की नत्रजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिए खेत में दबाया जाता है तो इस क्रिया को हरीखाद देना कहते है।
सिमित संसाधनो के समुचित उपयोग हेतु कृषक एक फसली, द्वीफसली कार्यक्रम व विभिन्न फसल चक्र अपना रहे है जिससे मृदा का लगातार दोहन हो रहा है जिससे उसमें उपसिथत पौधों के बढ़वार के लिए आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहें है। इस क्षतिपूर्ति हेतु विभिन्न तरह के उर्वरक व खाद का उपयोग किया जाता है। उर्वरक द्वारा मृदा में सिर्फ आवश्यक पोषक तत्व जैसे नत्रजन] स्फुर, पोटाश, जिंक इत्यादि की पूर्ति होती है मगर मृदा की संरचना, उसकी जल धारणा क्षमता एवं उसमें उपस्िथत सूक्ष्मजीवों को क्रियाशीलता बढ़ाने में इनका कोइ योगदान नहीं होता। अत: इस सबकी परिपूर्ति हेतु हरी खाद का प्रयोग एक अहम भूमिका निभाता है।
"जैविक खेती से किसानों को होने वाले लाभ-
"जैविक खेती से किसानों को होने वाले लाभ-
1. मिट्टी में होने वाले लाभ -
- जैविक खाद के उपयोग करने से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है।
- भूमि की जल धारण क्षमता बढ़ती हैं।
- भूमि से पानी का वाष्पीकरण कम हो जाता है।
- कृषकों को होने वाला लाभ -
- भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृध्दि हो जाती है।
- सिंचाई अंतराल में वृध्दि होती है ।
- रासायनिक खाद पर निर्भरता कम हो जाती है।
- फसलों की उत्पादकता में वृध्दि होती है।"